Wednesday, July 24, 2024

Sachchidanand rupay viswotpatyadigetve taaptray vinashay Shree Krishnaye vayam numah detailed meaning सच्चिदानन्दरूपाय श्लोक का अर्थ और व्याख्या


सच्चिदानन्दरूपाय श्लोक का अर्थ और व्याख्या

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्ति हेतवे ।  

तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ॥१॥ 


मूल अर्थ -

    सत् चित् और आनन्द स्वरूप वाले, विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण एवं तीनों तापों के नाशक श्रीकृष्ण को हम प्रणाम करते हैं । 

व्याख्या - 

   "सच्चिदानन्दरूपाय" श्लोक श्रीमद्भागवत महापुराण के माहात्म्य जोकि पद्मपुराण से लिया गया है, का मङ्गलाचरण है । हालांकि मूल पद्मपुराण में यह श्लोक प्राप्त नहीं होता है परन्तु भागवत माहात्म्य में यह प्रथम श्लोक के रूप में परिगणित किया गया है। 

  प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण भगवान के स्वरूप, सामर्थ्य और स्वभाव  का वर्णन किया गया है। 

भगवान के स्वरूप का वर्णन

  इस सृष्टि नें दो वस्तुएँ ऐसी हैं जिनके बिना संसार का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है । वह है नाम और रूप। किसी भी वस्तु का एक रूप होता है तदनुसार उसका नाम। जैसे - गलकम्बल युक्त पिण्ड विशेष को गौ या गाय की संज्ञा दी जाती है। यहाँ पर गलकम्बल युक्त पिण्ड उस गाय का स्वरूप है तथा गौ उसका नाम । यदि इस गाय का रूप और नाम निकाल दिया जाय तो कुछ भी शेष नहीं रह जाता है। इसी प्रकार संसार में किसी भी पदार्थ से नाम और रूप का साक्षात् सम्बन्ध होता है । 

   आज व्यास जी ने भी रूपाश्रित होकर भगवान श्रीकृष्ण के रूप का सर्वप्रथम वर्णन किया - सच्चिदानन्दरूपाय कहकर। भगवान का स्वरूप कैसा है - सच्चिदानन्द।

   सच्चिदानन्द में तीन पद हैं - सत्, चित् और आनन्द

सत् किसे कहते हैं ?

   सत् अर्थात् सत्य की परिभाषा आचार्य शङ्कर जी करते हैं कि - 

  यद्रूपेण यन्निश्चितं तद्रूपं न व्यभिचरति तत् सत्यम्।

   अर्थात् जो जिस रूप में है ुउसमें कभी कोई विकार न आये और त्रिकालाबाधित रहे वह सत् या सत्य है

सत्य की एक और परिभाषा है - 

     सत्यं यथार्थ भाषणम् । 

 यथार्थ भाषण अर्थात् जो जैसा है उसमें बिना कुछ जोड़े वास्तविक वचन कहना ही सत्य है।

ईश्वर का रूप त्रिकालाबाधित होने के कारण ही सत् है । यह ईश्वर के रूप की प्रथम विशेषता है।

चित् किसे कहते हैं ?

  चित् - चैतन्य अर्थात् ज्ञान । वह ईश्वर ज्ञानवान् और चैतन्य भी है। किसी भी वस्तु को बनाने के लिए पदार्थ और ज्ञान या चैतन्यता की आवश्यकता होती है। बिना ज्ञान के किसी भी वस्तु का निर्माण असम्भव है। एक मकड़ी जाले का निर्माण करती है तो वह उसके निर्माण हेतु अन्यत्र से रुई आदि पदार्थ नहीं लेकर आती है । अपने मुख से ही तन्तु को निकालकर जाला बुनती है। तथापि जाले का निर्माण चैतन्यता या ज्ञान के बिना नहीं हो सकता है। मृत मकड़ी जाले का निर्माण नहीं कर सकती है। इसी प्रकार हम अपने सामने संसार को देखकर यह अवश्य अनुमान कर सकते हैं कि इसकी रचना किसी ज्ञानवान् चैैतन्य के द्वारा हुई है। अतः ईश्वर चित् अर्थात् चैतन्य और ज्ञानवान् है, यह उसकी दूसरी विशेषता है।

आनन्द किसे कहते हैं ?

  जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, उस वस्तु का नाम है आनन्द । कोई भी प्राणी किसी भी कार्य का सम्पादन उसी आनन्द को प्राप्त करने के लिए करता है परन्तु जड़ वस्तुओं से मोह कर उस आनन्द को भूल बैठता है। जब जीव की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं या खत्म हो जाती हैं तब वह आनन्द का अनुभव करता है। जब कभी मनुष्य शान्त होकर एकान्त में बिना कुछ सोचे बैठता है तब उसका आनन्द प्रकट होने लगता है।

    क्योंकि ईश्वर माया से प्रभावित नहीं होता अतः वह सर्वदा अपने आनन्द स्वरूप में तटस्थ रहता है और माया के बन्धन में बँध जाता है अतः इसका आनन्द छुपता रहता है। परमात्मा सदैव आनन्दित रहता है अतः वह आनन्दस्वरूप कहा गया है। इसीलिए कहा है

जो आनन्द सिन्धु सुख रासी।

सीकर ते त्रैलोक सुपासी ॥

वह ईश्वर आनन्द का सागर है, जिसके आनन्द की एक बूँद से त्रैलोक्य आनन्द से परिपूर्ण पो जाता है। 

भगवान का सामर्थ्य

  विश्वोत्पत्याऽऽदिहेतवे - वह परमात्मा इतना सामर्थ्यवान् है कि प्रकृति के दर्शन मात्र से एक ही क्षण में करोड़ों ब्रह्माण्डों को प्रकट कर देता है, कृपादृष्टि मात्र से इतनी विशाल सृष्टि का पालन हो जाता है तथा भृकुटि के टेढ़ी करने पर इस अनन्त सृष्टि का संहार हो जाता है, यही ईश्वर का सामर्थ्य है । इसलिए कहा जाता है -

भृकुटि विलास सृष्टि लय होई ।। 

भगवान का स्वभाव

तापत्रयविनाशाय - तीनों तापों के नाशक । इस सृष्टि के उत्पन्न होने के साथ ही तीन शूलों की उत्पत्ति हुई । ये तीन शूल ही तीन प्रकार के दुःख हैं । संसार में तीन प्रकार के दुःख होते हैं

१. आधिदैविक, जो देवों द्वारा प्रदत्त आपदाएं हैं जैसे - आंधी, तूफान, बाढ़, सूखा आदि। 

२. आधिभौतिक, जो चार प्रकार के प्राणियों से दुःख प्राप्त होता है । इस संसार में चार प्रकार के प्राणी पाये जाते हैं - 

 अ) अण्डज - अण्डे से उत्पन्न जैसे - सर्प, पक्षी आदि । 

  ब) पिण्डज - पिण्ड रूप में उत्पन्न, जैसे - मनुष्य, जानवर आदि। 

  स) श्वेदज - पसीने से उत्पन्न, जैसे - जूं, लीखें आदि। 

  द) उद्भिज्ज - पृथ्वी से उत्पन्न, जैसे - वृक्ष आदि। 

   इन्हीं चार प्रकार के प्राणियों से प्राप्त दुःख आधिभौतिक दुःख कहा जाता है। 

३. आध्यात्मिक दुःख, जिसे मानसिक दुःख कहा जाता है। चिंता, ग्लानि, शोक, रोगादि इस दुःख के अन्तर्गत आते हैं। 

 अपने प्रपन्न लोगों के इन तीनों तापों को कृपा वश वह ईश्वर नष्ट कर देता है, यह इनका स्वभाव है। 

ऐसे दिव्य स्वरूप, सामर्थ्य और स्वभाव वाले परमात्मा श्रीकृष्ण को हम सब प्रणाम करते हैं । 

श्रीकृष्णाय वयं नुमः

  अपने आश्रम में बैठे व्यास जी अकेले थे, ईश्वर का आराधन करते हुए सिर झुकाया तब भी अकेले थे, परन्तु जैसे ही आंखें खोलीं एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत हुआ । उन्होंने देखा कि केवल वही ईश्वर को प्रणाम नहीं कर रहे, सारी सृष्टि उस ईश्वर को नमस्कार कर रही है । इसलिए व्यास जी ने यहाँ श्रीकृष्णाय वयं नुमः यह बहुवचनान्त प्रयोग किया । 

नोट —

  कुछ विद्वानों के मत में प्रयुक्त श्री शब्द राधा जी का वाचक है अतः प्रस्तुत श्लोक में राधा और कृष्ण दोनों को एक साथ प्रणाम किया है । 

 कुछ विद्वानों के अनुसार श्री शब्द सम्मान सूचक है अतः सम्मान या आदरभाव दिखाने हेतु श्री शब्द का प्रयोग किया गया है ।


No comments:

Post a Comment

Please feel free to provide feedback, if any ..